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सातवें श्रीमौर्यपुत्र विप्रपण्डित का "देव है कि नहीं ?" इस विषय का सन्देह-संशय नष्ट हुंपा। 'देव हैं इस सत्य कथन का निश्चय अपने मन में निश्चित हुआ। उसी समय श्रीमौर्यपुत्र ने अपने सर्वज्ञपने के अभिमान को तिलांजलि दे दी और सच्चे सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीर भगवान का शिष्य बनने का निर्णय किया। उनके साढ़े तीन सौ छात्रों ने भी उनके साथ ही दीक्षित होने का विचार किया।
छिन्न सन्देह-संशय वाले ऐसे सातवें श्रीमौर्यपुत्र अपने साढ़े तीन सौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास प्रवजित-दीक्षित हुए। दीक्षा पाने के साथ ही उन्होंने भगवान को तीन प्रदक्षिणा पूर्वक 'भगवन् किं तत्त्वं ?' इस प्रकार तीन बार पूछा। भगवन्त ने कहा-"उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" अर्थात्-'सर्व पदार्थ वर्तमान पर्याय रूप में उत्पन्न होते हैं, पूर्व के पर्याय रूप से नष्ट होते हैं तथा मूल द्रव्य रूप में ध्र व-नित्य रहते हैं।' इस तरह सर्वज्ञ प्रभु के मुँह से 'त्रिपदी' सुनकर के गणधर श्रीमौर्यपुत्र ने एक ही अन्तर्मुहूर्त में सम्पूर्णपने 'श्रीद्वादशाङ्गी' की अनुपम रचना की। ॥ इति श्रीगणधरवादे सप्तम गणधर श्रीमौर्यपुत्र
का संक्षिप्त वर्णन ॥
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