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देवभव तथा वहाँ के भोगों को जातिस्मरण ज्ञानवाले प्रत्यक्ष देख सकते हैं। देवभव की प्राप्ति की क्रिया भी वेदों में वर्णित है। अति पुण्यवान को पुण्य भोगने का अन्ततोगत्वा कोई स्थान तो होना चाहिये। इससे भी देवगति सिद्ध होती है। लोक अतिपुण्यशाली को देवोपम मानते हैं।
यह संसार देवों के द्वारा अनुग्रह और पीड़ा दोनों हो प्राप्त करता है तो कई बार पीड़ा का अनुभव भी देव कराते हैं। सूर्य-चन्द्रादि के विमानों में रहने वाला कोई तो होगा ही। इससे भी देवत्व सिद्ध होता है। संसार में ऐसा कोई नहीं है जो सब प्रकार से सुखी हो, तथा सर्वदा सुख में ही रहे। मनुष्य कितना ही सुखी हो;
आधिदैविक, आधिभौतिक, जरा, इष्टवियोग, रोग आदि का दुःख भोगता ही है और उत्कृष्ट दानादिक से पुण्यवान बनकर उसे भी कहीं-न-कहीं भोगता है तो वही देवत्व है।
श्रीमौर्यपुत्र क्षणभर विचार करके पुनः शंका करते हैं कि "तो फिर देव मनुष्य के समान ही स्वेच्छाविहारी होने पर यहाँ बार-बार आते क्यों नहीं हैं ?" प्रभु ने कहा--"ये देव स्वर्ग में विषयों के सुख में लिप्त एवं
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