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प्राणियों को बोध दिया है । किन्तु ये वेदपद ' देव नहीं हैं' ऐसा नहीं कहते हैं । देव स्वतन्त्र और प्रभावशाली होते हुए भी संगीतकार्यादिक में व्यग्रता, दिव्य प्रेम तथा विषयों में आसक्ति आदि कारणों से तथा मनुष्यलोक की दुर्गन्ध से इधर आते नहीं हैं । वे केवल श्रीतीर्थंकर भगवन्तों के पाँचों कल्याणकों के प्रसङ्ग पर, भक्ति से तथा पूर्वभव की प्रीति या द्वेष आदि कारणों से इधर आते हैं ।
सारांश यह है कि सातवें श्रीमौर्यपुत्र को प्रभु ने कहा कि - "यो जानाति मायोपमान् गीर्वाणान् इन्द्र-यम-वरुणकुबेरादीन् " अर्थात् इन्द्रजाल के समान इन्द्र, यम, वरुरण और कुबेर आदि देवों को किसने देखा है ? ऐसा अर्थ करके तुमने 'देव नहीं है' ऐसा समझा है और " स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्लोकं गच्छति ।" यह यज्ञ करने वाला याज्ञिक शीघ्र ही स्वर्गलोक में जाता है । इस प्रकार के वेदपदों से तुम्हें परस्पर विरुद्धता ज्ञात होती है, किन्तु वास्तव में विरुद्धता है नहीं । क्योंकि तुम और हम देवों को प्रत्यक्ष देख सकते हैं । देवों को मायोपमान् इस हेतु से कहा है कि देव भी अनित्य हैं । उन्हें भी शाश्वत सुख नहीं है । पूर्व के
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