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गच्छति ।" अर्थात्-'यज्ञरूपी शस्त्र-हथियारवाला यह यजमान शीघ्र स्वर्गलोक-देवलोक में जाता है।"
इस प्रकार के वेदपदों से स्पष्ट होता है कि, 'देव हैं' कारण कि जो देव न होते तो देवलोक कहाँ से होता ? । इसलिये परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से तू सन्देहसंशय में पड़ा है कि 'देव हैं कि नहीं ? किन्तु हे मौर्यपुत्र ! यह तेरा सन्देह-संशय अयुक्त है। क्योंकि इधर इस दिव्य समवसरण में आये हुए इन देवों को तू और मैं सभी प्रत्यक्ष देख रहे हैं। पुनः चन्द्र और सूर्य आदि ज्योतिष्क देवों के विमानों को तो सर्वलोग प्रत्यक्ष देखते हैं। जो देव न होते तो ये विमान नहीं दिखाई देते । वेद के पदों में देवों को जो मायासदृश कहा है उससे देवों का अनित्यपना सूचित किया है। अर्थात् दीर्घ आयुष्यवाले देव भी अपना आयुष्य पूर्ण होते ही वहाँ से तत्काल च्यवते हैं अर्थात् अन्य गति में चले जाते हैं। इसलिये कहा है कि अन्य पदार्थों की भाँति देव भी अनित्य हैं । इसलिये देवपने की आकांक्षा नहीं रखो, सिर्फ ऐसे मोक्ष की प्राप्ति की ही भावना रखो और उसको हो शीघ्र प्राप्त करने के लिए सर्वथा प्रयत्नशील रहो । इस तरह देवों का अनित्यपना सूचित कर
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