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परस्पर
" हे मौर्यपुत्र ! तेरे हृदय में यह सन्देह - संशय है कि- 'देव है कि नहीं ?' यह सन्देह तुम को विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से हुआ है । " को जानाति मायोपमान् गीर्वाणान् इन्द्र-यम- वरुरण - कुबेरादीन्" इति । उक्त वेदपदों से तू जानता है कि - ' देव नहीं है ।' इन्द्र, यम, वरुण और कुबेर आदि माया सदृश देवों को कौन जानता है ? अर्थात् इन्द्रादि देव मायारूप हैं । जैसे माया- इन्द्रजाल वास्तविकपने कुछ नहीं है, वैसे देव भी वास्तविकपने कुछ नहीं हैं ।
पुनः तुमने विचारा है कि नारकी तो परतन्त्र और दुःख से दुःखी तथा विह्वल होने से इधर नहीं आ सकते हैं । इसलिये उनको प्रत्यक्ष रूप में देखने का कोई भी उपाय न होने से सिर्फ शास्त्र के अनुसार 'नारकी हैं' ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिये । परन्तु देव तो स्वतन्त्र और प्रभावशाली होने से इधर आने के लिए समर्थ होते हुए भी वे देव दृष्टिगोचर नहीं होने से नहीं हैं । फिर देव की सत्ता प्रतिपादन करने वाले अन्य वेदपदों को देखकर तू सन्देह - संशय में पड़ा है कि 'देव हैं कि नहीं ?' देव की सत्ता प्रतिपादन करने वाले वेद पद हैं- " स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्लोकं
लगता है कि देव
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