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भय, पीड़ा इत्यादि स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं । इस तरह मुक्तात्मा का स्वरूप बताने वाले ये वेदपद हैं । किन्तु संसारी आत्मा को तो कर्म का बन्ध भी होता है और कर्म से मोक्ष भी ।
इसी भाँति सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीर स्वामी भगवान के वदन - मुँह से " स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा ।" इत्यादि वेदपदों का सही अर्थ ज्ञात कर मैंने जो अर्थ किया, वह मिथ्या था; ऐसा जानकर तथा 'आत्मा को कर्म का बन्ध होता है और मोक्ष भी होता है' ऐसे प्रभु के युक्तिसंगत सुवचन सुनकर श्रीमण्डित विप्र पंडित का 'आत्मा को कर्म का बन्ध और कर्म से मोक्ष होता है कि नहीं ? " इस विषय का सन्देह संशय नष्ट हुआ ।
तत्काल श्रीमण्डित विप्र ने अपने सर्वज्ञपने के अभिमान को तिलांजलि दे दी और सच्चे सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीर भगवान का शिष्य बनने का निर्णय किया । साथ में आये हुए साढ़े तीन सौ छात्रों ने ही दीक्षित होने का विचार किया । वाले ऐसे श्रीमण्डित विप्र अपने साढ़े साथ प्रभु के पास प्रव्रजित - दीक्षित हुए ।
भी उनके साथ
छिन्न सन्देह - संशय
तीन सौ छात्रों के
उन्होंने दीक्षा
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