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कर्म-बन्धन को मानता है। इस प्रकार वेदपदों के वास्तविक अर्थ को नहीं समझने से विरुद्धता ज्ञात होती है।
वास्तव में 'विगुण' यानी छद्मस्थपने के गुण जिसके नष्ट हुए हैं और 'विभु' यानी केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वरूपे विश्वव्यापक प्रात्मा नये कर्म के बन्धन में नहीं पाता। यदि 'बन्ध-मोक्ष' न हो तो मुक्ति का बोध तथा तदर्थ सारी क्रियाओं का फल ही निष्फल होगा। पुन: प्रत्यक्ष सुख तथा दुःख, पुण्य तथा पाप, जन्म तथा मरण आदि का सम्बन्ध कर्म के कारण ही है। अंकुर तथा फल के समान दोनों में कार्य-कारण भाव से स्थित है । बीज से अंकुर तथा अंकुर से बीज अनादिकाल से चलित है। उसी प्रकार देह से कर्म तथा कर्म से देह भी क्रमशः अनादिकाल से प्रारम्भ है। कर्म पूर्व में या जीव पूर्व में ? अर्थात्-पहले अंडा हुआ कि मुर्गी हुई ? इन विकल्पों को कहीं अवकाश नहीं है। शरीर से कर्म होते हैं तथा पूर्व कर्मों का परिणाम यह शरीर है। इस प्रकार कार्य-कारण से दोनों का सम्बन्ध अनादिकाल से है। जीव-आत्मा कर्म द्वारा शरीर को उत्पन्न करता है। अतः कर्ता है और शरीर द्वारा कर्म की उत्पत्ति
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