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इस तरह परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से तुम सन्देह-संशय में पड़े हो। परन्तु हे मण्डित ! यह तुम्हारा सन्देह-संशय असत्य-अयुक्त है। कारण कि ‘स एष विगुणो विभुर्न बध्यते०' इत्यादि वेदपदों का तुम्हारा अर्थ वास्तविक नहीं है। उसका सच्चा अर्थ तो इस प्रकार है-- ____ विगुणः' यानी छद्मस्थपने के गुणरहित और 'विभुः' यानी केवलज्ञान स्वरूप में सर्व व्यापक ऐसी आत्मा अर्थात् मुक्तात्मा 'न बध्यते' कर्म से बँधती नहीं है, 'न संसरात वा' संसार में परिभ्रमण नहीं करती है, 'न मुच्यते' कर्म से मूकाती नहीं है तथा 'न मोचयति वा अन्य को कर्म से मूकाती भी नहीं है। पुनः 'न वा एष बाह्यमभ्यंतरं वा वेद' यह मुक्तात्मा पुष्प, चन्दन इत्यादिक से होने वाले बाह्य सुख को तथा अभिमान से होने वाले आन्तरिक सुख को अनुभवरूप में नहीं जानता। अर्थात् वह .सांसारिक सुख को भोगता नहीं है।
सारांश यह है कि निश्चयदेहधारी आत्मा को सुख-दुःख की निवृत्ति नहीं है, अर्थात् सुख-दुःख दोनों होते ही हैं। किन्तु देहरहित मुक्त आत्मा को दुःख-स्पर्श नहीं करते। इन पदों से निश्चय ही वेद
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