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किन्तु प्रात्मा का धर्म नहीं। अतः जीव बाह्य और अभ्यन्तर स्वरूप को नहीं जानता है।
इस तरह वेदपदों से तू जानता है कि--'अात्मा को बन्ध और मोक्ष नहीं है।' फिर आत्मा को बन्ध और मोक्ष जानने वाले अन्य वेदपदों को देखकर तू सन्देह-संशय में पड़ा कि आत्मा को कर्म का बन्ध और मोक्ष है कि नहीं ? .
आत्मा को बन्ध और मोक्ष जानने वाले वेदपद निम्नलिखित हैं--"न ह वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसंतं प्रिया-ऽप्रिये न स्पृशतः।" शरीर सहित यानी संसारी आत्मा को सुख और दुःख का अभाव नहीं ही है। अर्थात् संसारी प्रात्मा को सुख और दुःख अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। कारण कि उसको सुख और दुःख के कारणभूत शुभ-अशुभ कर्म होते हैं। शरीररहित यानी कर्म से मुक्त बनी हुई और लोक के अग्र भाग में बसी हुई आत्मा को सुख और दुःख दोनों स्पर्श नहीं करते हैं। क्योंकि इस मुक्तात्मा को सुख और दुःख के कारणभूत एक भी कर्म साथ में नहीं है। इस प्रकार के वेदपदों से स्पष्ट होता है कि 'प्रात्मा को बन्ध और मोक्ष है।'
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