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"हे मण्डित ! तेरे अन्तःकरण में यह सन्देह- संशय है कि -- 'आत्मा को कर्म का बन्ध तथा कर्म से मोक्ष है कि नहीं ?' यह सन्देह भी तुम को परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से हुआ है । " स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा न वा एष बाह्यमभ्यन्तरं वा वेद ।" उक्त वेदपदों से तू जानता है कि -- 'आत्मा को कर्म का बन्ध और कर्म से मोक्ष नहीं है ।' अर्थ तू इस प्रकार करता है -- सत्त्वादि गुणों से रहित और सर्वत्र व्यापक ऐसी यह आत्मा न तो बन्धन में प्राती है और न संसार के परिवर्तन से परिवर्तित होती है तथा न मोक्ष प्राप्त करती है और न मुक्त करवाती है ।
इनका
अर्थात् - 'सत्त्व, रजस् और तमस्' इन गुणों से रहित और व्यापक यह जीव, पुण्य-पाप से संसार में परिभ्रमण नहीं करता है, कर्मरूपी बन्धन होने से उसका मोक्ष भी नहीं होता तथा अकर्त्ता होने से अन्य किसी को कर्म से मुक्त भी नहीं करता है ।
पुनः यह जीव अपने से भिन्न ऐसे महत् अहंकार इत्यादि बाह्यस्वरूप को तथा अभ्यन्तर यानी अपने स्वरूप को नहीं जानता है । कारण कि ज्ञान प्रकृति का धर्म है,
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