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श्रीसुधर्मा नामक विप्र पंडित ने अपने सर्वज्ञपने के अभिमान को तिलांजलि दे दी और सच्चे सर्वज्ञ विभु श्री महावीर भगवान का शिष्य बनने का निर्णय किया। उनके साथ आये हुए उनके पांच सौ शिष्यों ने भी उनके साथ में ही दीक्षित होने का विचार किया।
छिन्न सन्देह-संशय वाले ऐसे श्री सुधर्माद्विज भी अपने पाँच सौ छात्रों के साथ प्रभु के पास प्रवजित-दीक्षित हुए। दीक्षा पाने के साथ ही उन्होंने भगवान की तीन प्रदक्षिणापूर्वक 'भगवन् ! किं तत्त्वं ?' इस प्रकार तीन बार पूछा। भगवन्त ने कहा-"उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" अर्थात्-'सर्व पदार्थ वर्तमान पर्याय रूप में उत्पन्न होते हैं, पूर्व के पर्याय रूप में नष्ट होते हैं तथा मूल द्रव्य रूप में ध्र व-नित्य रहते हैं।' इस तरह सर्वज्ञ प्रभु के मुंह से 'त्रिपदी' सुनकर गणधर श्रीसुधर्मा स्वामीजी ने एक ही अन्तर्मुहूर्त में सम्पूर्णपने 'श्रीद्वादशाङ्गी' की सुन्दर रचना की।
॥ इति श्रीगणधरवादे पञ्चम गणधर श्रीसुधर्मा
स्वामीजी का संक्षिप्त वर्णन ॥
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