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________________ इस प्रकार के अर्थ का निरूपण करने वाला है। किन्तु 'मनुष्य मनुष्य ही होता है' ऐसे अर्थ का निश्चय कराने वाला नहीं। क्योंकि विष्टा से कीट उत्पन्न होते हैं, कंडों में बिच्छू, शृग में मे शर-प्राण वनस्पति तथा सरसों के लेप से बोया जाय तो एक पृथक् ही घास उत्पन्न होती है । गाय के तथा अजा के रोम से दूर्वा तथा ध्रो उत्पन्न होती है तथा पृथक्-पृथक अनेक द्रव्यों के सम्मिश्रण से सर्प, सिंह, मत्स्य इत्यादि और मणि, स्वर्णादि उत्पन्न होते हैं । अतः वस्तु सदृश भी होती है तथा विसदृश भी होती है । इसे अनेकान्त दृष्टि से स्वीकारना चाहिये। जो इस लोक में है वह परलोक में सर्वदा असदृश है। परलोक में भी देवत्व को प्राप्त सभी समान शरीर नहीं होते और न ही सर्वथा असमान ही होते हैं । ___ इस तरह सर्वज्ञ विभु श्री महावीरस्वामी भगवान के मुह से "पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वे" वेद की इस श्रुति का सही अर्थ जानकर 'मैंने जो अर्थ किया वह असत्य-अयुक्त था' ऐसा मानकर प्रभु के युक्तिसंगत सुवचन सुनकर पाँचवें श्रीसुधर्मा नाम के द्विज (ब्राह्मण) का 'जैसा यहाँ है वैसा ही जन्म परभव में होता है कि नहीं ?' इस विषय का संदेह-संशय नष्ट हुआ। तत्काल ( ९७ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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