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कर्म बाँधकर और मृत्यु पाकर पुनः मनुष्य जन्म पाता है; अर्थात् पुनः मनुष्य रूप में उत्पन्न होता है। तथा जो पापी मनुष्य होता है वह मृत्यु पाकर पशु या नारकी रूपों में भी उत्पन्न होता है। मायादि दोष युक्त पशु भी मृत्यु पाकर पुनः पशु रूप में उत्पन्न होता है, किन्तु भद्रक परिणामी पशु मृत्यु पाकर मनुष्य या देवरूप में भी उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्राणियों की भिन्न-भिन्न गतियों में उत्पत्ति कर्म के आधीन होती है। इसलिये प्राणियों का विविधपना दिखाई देता है ।
फिर जो तू मानता है कि-जैसा कारण हो वैसा ही तद्सदृश कार्य सम्भवता है। यह भी मान्यता युक्तिसंगत नहीं है, कारण कि गोबर आदि में से बिच्छू आदि को उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिये निमित्त मिल जाता है तो विसदृश कार्यों की अर्थात् विचित्र कार्यों की भी उत्पत्ति होती है। सारांश यह है कि उक्त वेदवाक्यों से सन्देह-संशय में पड़े हुए सुधर्म का संशय दूर करते हुए प्रभु ने कहा
कोई मनुष्य अपने जीवन में नम्रतादि मनुष्यपने के आयुष्य को बन्ध कराने वाले गुणों को अपनावे और अच्छी तरह से जीवे तो वह पुनः भी मनुष्य होता है । यह वाक्य