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जानता है कि जो प्राणी जैसा इस भव में होता है, वैसा ही परभव में होता है । तथा
" शृगालो वं एष जायते यः सपुरीषो दह्यते ।'
'जिसे विष्टा युक्त जलाया जाय वह शृगाल ( सियार ) होता है' । अर्थात् - जिस किसी मनुष्य को मृत्यु के समय विष्टा हो जाय, उसको विष्टा सहित जलाया जाय तो वह मनुष्य परभव में श्रृंगाल रूप में उत्पन्न होता है । इन वेदपदों से यह भी जाना जाता है कि मनुष्य मृत्यु पाकर परभव में शृगाल- सियार भी होता है । इससे 'जो प्रारणी इस भव में जैसा हो वैसा ही परभव में उत्पन्न होता है' ऐसा नियम न रहा । तू परस्पर विरुद्ध भासते ऐसे वेदपदों से संदेह-संशय में पड़ा है । परन्तु हे सुधर्मा ! यह तेरा संदेह - संशय असत्य प्रयुक्त है ।
" पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम्” इस वेदपद का सच्चा अर्थ इस प्रकार है - 'पुरुष मृत्यु पाकर परभव में पुरुषपने को प्राप्त करता है और पशु मृत्यु पाकर परभव में पशुपने को प्राप्त करता है ।' कहने का तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य भद्रक प्रकृतिवन्त अर्थात् सरल परिणामी होता है, विनय- विवेक, नम्रता, सरलता इत्यादि गुणों से युक्त होता है, वह मनुष्य इस भव में मनुष्यपने का प्रायुष्य( ९५ )