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था, ऐसा जानकर 'पंच भूत हैं' ऐसे प्रभु के युक्तिसंगत सुवचन सुनकर चौथे श्री व्यक्त नामक विप्र का 'पंच भूत हैं कि नहीं ?' इस विषय का सन्देह-संशय नष्ट हुआ और विश्व में 'पंच भूत हैं' इस सत्य कथन का निश्चय अपने हृदय में निश्चित हुआ। तत्काल श्रीव्यक्त विप्र ने अपने सर्वज्ञपने के अभिमान को तिलांजलि दे दो और उसने सच्चे सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीर भगवान का शिष्य बनने का निर्णय किया। अपने पाँच सौ शिष्यों सहित वह दीक्षित होने के लिये तैयार हुआ। छिन्नसन्देह-संशय वाले ऐसे श्रीव्यक्त विप्र ने अपने पांच सौ विद्यार्थियों के साथ प्रभु के पास दीक्षा ले ली। दीक्षा पाने के साथ ही भगवान की तीन प्रदक्षिणापूर्वक 'भगवन् कि तत्त्वं ?' इस प्रकार तीन बार पूछा। भगवन्त ने कहा-"उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" अर्थात्-‘सर्व पदार्थ वर्तमान पर्याय रूप में उत्पन्न होते हैं, पूर्व के पर्याय रूप में नष्ट होते हैं तथा मूल द्रव्यरूप में ध्रुव-नित्य रहते हैं।' इस तरह सर्वज्ञ प्रभु के मुंह से 'त्रिपदी' सुनकर गणधर श्रीव्यक्त ने एक ही अन्तर्मुहूर्त में सम्पूर्णपने 'श्रीद्वादशाङ्गी' की अनुपम रचना की। ॥ इति श्रीगणधरवादे चतुर्थ गणधर श्रीव्यक्त
का संक्षिप्त वर्णन ॥
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