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स्वप्नवत् है। इसलिये ऐसा कहा है, किन्तु इससे विश्व के अस्तित्व का निषेध नहीं होता है। यह जीव संसार के इन असार पदार्थों में प्रासक्त न बने, राग-द्वेषादि न करे तथा अन्त में मोक्ष प्राप्त करे; इसके लिये उपदेश वाक्य है। पंच भूतों के प्रत्यक्ष होने पर भी सन्देह-संशय करना भ्रम है। ___"हे व्यक्त ! संशय भी उसी का होता है जो वस्तु कहीं-न-कहीं होती है। अतः उसके ज्ञेय पदार्थ का अस्तित्व अनुमान सिद्ध है। स्वप्नावस्था की अनुभूति का सन्देह-संशय जाग्रतावस्था का अनुभव ही होता है। यदि वस्तु का अभाव होता तो स्वप्न में भी वह दृश्यमान नहीं बनती।"
प्रभु के ऐसे युक्ति-संगत वचन सुनकर उनका सन्देहसंशय दूर होने लगा। पुनः उन्होंने कहा कि परमाणु के दो स्वरूप हैं। एक साधारण तथा दूसरा असाधारण । साधारण स्वरूप चक्षु प्रादि इन्द्रियों से प्रतिभासित नहीं होता तथा असाधारण स्वरूप चक्षु आदि से प्रतिभासित होता है। इस तरह सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीरस्वामी भगवान के मुंह से “स्वप्नोपमं वै०" इस वेद की श्रुति का सच्चा अर्थ सुनकर मैंने जो अर्थ किया वह असत्य-अयुक्त
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