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बताया था,
कि - " विज्ञानघन
उसी माफिक प्रभु ने कहा एव" जो विशिष्ट ज्ञान अर्थात् ज्ञान-दर्शन का उपयोग वह
विज्ञान कहलाता है । वह विज्ञान का समुदाय ही आत्मा ज्ञेयपने अर्थात् जानने योग्यपने को प्राप्त हुए इन पृथ्वी आदि भूतों या घट-पट इत्यादि भूतों के विकारों से 'यह पृथ्वी है, यह घट - घड़ा है, यह वस्त्र है' इत्यादि प्रकार से उन-उन भूतों के उपयोगरूप में उत्पन्न होकर उन घट आदि भूतों का ज्ञेयपने प्रभाव हो जाने के पश्चात् आत्मा भी उनके उपयोगरूप में नष्ट होता है । तथा अन्य पदार्थ के उपयोग रूप में उत्पन्न होता है, या सामान्यस्वरूप में रहता है । इस तरह पूर्व के उपयोग रूप में प्रात्मा नहीं रहने से वह पूर्व के उपयोगरूप संज्ञा रहती नहीं है । अर्थात् श्रात्मा के प्रत्येक प्रदेश पर ज्ञान दर्शन के उपयोग रूप अनंत पर्याय रहते हैं । विज्ञान के समुदाय से आत्मा कथंचित् भिन्न है अर्थात् विज्ञानघन है । जब घट-पट वस्त्र इत्यादि भूत ज्ञेयपने प्राप्त हुए हों तब घटपटादिरूप हेतु से 'यह घट है, यह पट है' इत्यादि प्रकार के उपयोग रूप में आत्मा परिणमता है । कारण कि आत्मा को उस उपयोग रूप में परिणामाने में घटादि पदार्थ का सापेक्षपना है | बाद में जब उन घट-पट इत्यादि भूतों का अन्तर पड़ जाय, या उनका अभाव हो जाय, अथवा
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