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ज्योतिर्मयोहि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः॥" इत्यादि, अस्यार्थ:--"एष ज्योतिर्मयः शुद्ध प्रात्मा सत्येन तपसा ब्रह्मचर्येण लभ्यः--ज्ञेय इत्यर्थः ।"
_ 'इस ज्योतिर्मय शुद्ध प्रात्मा को संयममय बनाने वाले ऐसे धीर यति ही देख सकते हैं। उस शुद्ध ज्योतिर्मय आत्मा को प्राप्त करना हो, अर्थात् अज्ञान जैसे बने हुए आत्मा को शुद्ध ज्योतिर्मय बनाने का हो तो वह, सत्य के प्रासेवन द्वारा, तप के आसेवन द्वारा और ब्रह्मचर्य के आसेवन द्वारा बना सकते हैं।'
__ ऐसे स्पष्ट अर्थ वाले वेद की श्रुति से प्रात्मा पाँच पृथिव्यादि भूतों से पृथग्-भिन्न है, ऐसा स्पष्टपने समझा जाता है। इस कारण से 'जो शरीर है वही आत्मा है, कि शरीर से आत्मा पृथग्-भिन्न है ?' ऐसा सन्देह-संशय परस्पर विरुद्ध भासते हुए वेदपदों से हुआ है। परन्तु हे वायुभूते ! तेरा यह सन्देह-संशय असत्य-अयुक्त है। कारण कि-"विज्ञान घन०" इस वेद-वाक्य का अर्थ तू सही रूप में नहीं समझा है। इस वेदवाक्य का सच्चा अर्थ इस प्रकार है--
जिस तरह इस वेदवाक्य का सत्यार्थ श्री इन्द्रभूति को