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शरीर रूप में परिणत पाँच भूतों में से चैतन्य शक्ति उत्पन्न होती है। इस तरह शरीर रूप में परिणाम पाये हुए पाँच पृथिव्यादि भूतों में से विज्ञान का समुदाय उत्पन्न होकर के, पीछे जब परिणाम पाये हुए पाँच भूतों का विनाश होता है तब, विज्ञान का समुदाय भी जल-पानी में परपोटा की भाँति उन भूतों में ही लय पाता है। इस भांति पाँच भूतों के समुदायरूप शरीर में से चैतन्य उत्पन्न होता है। इसलिये इस चैतन्य का आधार शरीर है । इसे लोकवर्ग जो आत्मा शब्द से बोल रहे हैं, वह आत्मा शरीर से पृथग्-भिन्न आत्मा ही नहीं है। इसलिये इस वेदवाक्य में कहा है कि-"न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति" अर्थात् शरीर और आत्मा की पृथक्संज्ञा नहीं है, परन्तु शरीर ही आत्मा है।
_ फिर ‘पाँच भूतों के समुदायरूप शरीर से आत्मा पृथग् भिन्न है। इस तरह प्रतिपादन करने वाले अन्य वेदपदों को देखकर तू सन्देह-संशय में पड़ा है कि-'शरीर ही प्रात्मा है कि शरीर से भिन्न प्रात्मा है ?' 'प्रात्मा शरीर से भिन्न है।' इस प्रकार प्रतिपादन करने वाले वेदपद इस प्रकार हैं__ "सत्येन लभ्यस्तपसा ह्यष प्रात्मा ब्रह्मचर्येण नित्यं ।
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