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एवात्मा अन्यो वा ? इति ।" यह शरीर है वही आत्मा है कि शरीर से भिन्न प्रात्मा है ? अर्थात्-'यह शरीर ही जीव है या इस शरीर से जीव की सत्ता भिन्न है ?' इस प्रकार का सन्देह-संशय तुम को परस्पर विरुद्ध वेदवाक्यों से हुआ है। यदि तुम्हें सन्देह है तो वेदवाक्यों के वास्तविक अर्थ को क्यों नहीं विचारते हो ?
"विज्ञानघन एवैतेभ्यः भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवाऽनुविनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति ॥"
श्रीइन्द्रभूति की भाँति तू भी उक्त वेदवाक्य का अर्थ गलत कर रहा है। तू जानता है कि 'शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है, किन्तु शरीर ही आत्मा है'। इसका अर्थ तू इस तरह करता है--
विज्ञान का समुदाय ही इन पृथ्वी आदि पाँच भूतों में से उत्पन्न होकर पुनः पृथ्वी आदि भूतों में ही लय हो जाता है। विज्ञान का समुदाय ही उत्पन्न होता है। उस विज्ञान का आधार पाँच भूत ही हैं, परन्तु आत्मा को शरोर से पृथग्-भिन्न मानने वाले जो विज्ञान के आधार पर
आत्मा नाम के पदार्थ को शरीर से पृथग्-भिन्न मानते हैं वह आत्मा नाम का पदार्थ शरीर से पृथग्-भिन्न नहीं है। जैसे मदिरा के अंगों में से मदशक्ति उत्पन्न होती है, वैसे
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