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* तीसरे गणधर श्रीवायुभूति *
'शरीर ही जीव है ?' संशय उन दोनों बड़े बन्धु श्रीइन्द्रभूति और श्रीअग्निभूति को दीक्षित हुए सुनकर तीसरे बन्धु श्रीवायुभूति विचारने लगे कि-"मेरे दो अग्रज भ्राता जिसके शिष्य हो गये हैं वह मेरे भी पूज्य ही है। मैं भी उनके पास जाकर अपने संदेह-संशय को दूर करने के लिये प्रश्न पूछू और प्रत्युत्तर सही रूप में समझकर उनकी शरण स्वीकार करूं।
इस विचार से वे भी अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ सर्वज्ञ विभु श्रीमहावीर परमात्मा के पास आये। प्रभु ने उसे उसी प्रकार नाम-गोत्र के उच्चारण से सम्बोधित किया और कहा कि
"तज्जीवतच्छरीरे, सन्दिग्धं वायुभूतिनामानम् । ऊचे विभुर्यथास्थं, वेदार्थ कि न भावयसि ? ॥" हे गौतमगोत्रीय श्रीवायुभूते ! "यच्छरीरं स
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