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अनुग्रह होता है, ऐसा स्पष्टपने दिखता है। फिर मूर्त मदिरा, विष-जहर आदि पदार्थों द्वारा अमूर्त ऐसे ज्ञान का भी उपघात होता है। यह भी स्पष्टपने दिखाई देता है। इसलिये अमूर्त के भी मूर्त द्वारा अनुग्रह और उपघात दोनों ही होते हैं, ऐसा अवश्य ही मानना चाहिए ।
पुनः यदि कर्म नहीं हों तो एक सुखी और एक दुःखी, एक राजा और एक रंक, एक सेठ और एक किंकर इत्यादि प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली विश्व की विचित्रता कैसे सम्भव हो सकती है ? राजा और रंक ऐसे उच्च-नीच का जो भेद देखने में आता है, उसका भी कोई कारण होना चाहिये । विश्व में प्रत्यक्षपने अनुभवाता विचित्रपना कर्म को माने बिना नहीं बन सकता है। इसलिये कर्म को तो अवश्य ही स्वीकार करना पड़ेगा। जैसे अंकुर कार्य है तथा उसका कारण बीज है, उसी प्रकार सुख-दुःख कार्य हैं तथा कर्म उनका बीज है; तथा समान कारण होने पर भी विषमता दिखाई देना कर्म के कारण ही होता है। फिर जो-जो क्रिया की जाती है, उसका फल अवश्य मिलता ही है। वह फल शुभ कर्म या अशुभ कर्म है ।
इस तरह सर्वज्ञ विभु श्री महावीर परमात्मा के मुंह
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