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पुरुष एव"। अर्थात् 'जो-जो दिखाई देता है वह सर्व पुरुष ही है। अर्थात् आत्मा ही है' इत्यादि। इस तरह कहने वाले वाक्य स्तुति करने वाले कहे जाते हैं। प्रात्मा की प्रशंसा करने वाले हैं, न कि आत्मा बिना अन्य वस्तुओं का निषेध करने वाले हैं। कितनेक वेदवाक्य स्तुतिपरक हैं। जैसे
जले विष्णुः स्थले विष्णुः, विष्णुः पर्वतमस्तके । सर्वभूतमयो विष्णु-स्तस्माद् विष्णुमयं जगत् ॥
'जल में विष्ण है, स्थल में विष्ण है, पर्वत के मस्तक पर भी विष्ण है, एवं सर्व भूतमय विष्ण है। इस कारण जगत्-विश्व विष्ण मय है।' ऐसे वाक्यों से विष्णु की महिमा बताई है। किन्तु इससे अन्य वस्तुओं का अभाव सिद्ध नहीं होता।
"इदं पुरुष एवं" इसका भी असत्य अर्थ करने से कर्म का अभाव मानने के लिये तुमने अमूर्त आत्मा को मूर्त कर्म से अनुग्रह और उपघात किस तरह से होता है ? इस प्रकार की युक्ति की है, वह भी असत्य-अयुक्त है। कारण कि-ज्ञान अमूर्त है, उसका भी मूर्त ब्राह्मी आदि औषध द्वारा तथा घी दूध इत्यादि उत्तम पदार्थों द्वारा
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