________________
से "पुरुष एवेदं ग्निं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्" इस वेद की श्रुति का मेरे द्वारा किया हुअा अर्थ आज तक असत्य अयुक्त था, ऐसा जानकर और उसका सच्चा अर्थ पाकर, तथा 'कर्म हैं' ऐसे प्रभु के युक्तिसंगत सुवचन सुनकर श्री अग्निभूति विप्रपंडित का 'कर्म है कि नहीं ?' इस विषय का सन्देह-संशय नष्ट हुअा। विश्व में 'कर्म है' इस सत्य कथन का निश्चय उनके अन्तःकरण में निश्चित हुआ। तत्काल श्री अग्निभूति ने अपने सर्वज्ञपने के अभिमान को तिलांजलि दी और सच्चे सर्वज्ञ विभु श्री महावीर भगवान का शिष्य बनने का निर्णय किया। साथ में आये हुए पाँच सौ शिष्यों ने भी उनके साथ में ही दीक्षा की तैयारी की। छिन्नसन्देह-संशयवाले ऐसे श्री अग्निभूति अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास प्रवजितदीक्षित हुए। उन्होंने दीक्षा के साथ ही भगवान को तीन प्रदक्षिणा पूर्वक 'भगवन् किं तत्त्वं?' इस प्रकार तीन बार पूछा। भगवन्त ने कहा-"उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" अर्थात्-'सर्व पदार्थ वर्तमान पर्याय रूप में उत्पन्न होते हैं, पूर्व के पर्याय रूप में नष्ट होते हैं तथा मूल द्रव्यरूप में ध्र व-नित्य रहते हैं। इस तरह सर्वज्ञ प्रभु के मुंह से 'त्रिपदी' सुनकर गणधर
( ७८ )