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भगवान के पास आये। उसी समय भगवान ने भी उनको मधुर वाणी में पूछा कि
हे गौतमाग्निभूते ! कः, सन्देहस्तव कर्मणः ? । कथं वा वेदतत्त्वार्थ, विभावयसि न स्फुटम् ॥
"हे गौतमगोत्रीय अग्निभूते ! तुम्हारे अन्तःकरण में कर्म के अस्तित्व का संदेह-संशय है। किन्तु वेदपद में रहे हुए तात्त्विक अर्थ को स्फुटपने क्यों नहीं विचारते हो ?" इस तरह कह कर भगवान ने वेद की श्रुति का उच्चारण किया। ___"पुरुष एवेदं ग्निं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्" इत्यादिः ।
हे अग्निभूते ! 'पुरुष एवेदं ग्नि' इसमें 'ग्नि' वाक्य के अलंकार के लिये है। इस वेद के पद से प्रारम्भ हुई श्रुति का अर्थ करते हुए तुम कहते हो कि-यद्भूतम् प्रतीतकाले, यच्च भाव्यं भाविकाले तत् सर्वम् इदं पुरुष एव-प्रात्मैव, एवकारः कर्मेश्वरादिनिषेधार्थः।
यह प्रत्यक्ष चेतन-अचेतन रूप जो भूतकाल में हो गया है और जो भविष्यकाल में होने वाला है; वह सब पुरुष ही है अर्थात् आत्मा ही है। आत्मा के बिना कर्म ईश्वर