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* द्वितीय गणधर श्री अग्निभूति *
'कर्म का संशय' लोगों द्वारा अपने ज्येष्ठ बन्धु श्री इन्द्रभूति को अपने पांच सौ शिष्यों सहित प्रवजित-दीक्षित सुना तो उनके दूसरे लघु बन्धु श्री अग्निभूति विचार करने लगे। वे चौंक उठे-हैं ? यह क्या ? कभी पर्वत पानी की भाँति पिघल सकता है। अग्नि शीतल हो सकती है। हिम का समूह जल सकता है, वायु स्थिर हो सकती है, चन्द्र में से अंगारे बरस सकते हैं तथा पृथ्वी भी पाताल में पेस सकती है, किन्तु मेरे बड़े बन्धु श्री इन्द्रभूति कभी हार जायें, ऐसा नहीं हो सकता है।
अतः अग्निभूति ने निश्चय किया कि मैं स्वयं जाकर उस धूर्तराज को जीत कर अपने भ्राता को लेकर लौटता हूँ। यह विचार कर श्री अग्निभूति भी अपने पाँच सौ शिष्यों को साथ लेकर शीघ्र सर्वज्ञ विभु श्री महावीर
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