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इति दकारत्रयं यो वेत्ति स जीवः'। दम, दान और दया इन तीन दकार को जो जानता है, वह जीव-आत्मा ही है; इत्यादि वेदवाक्यों से भी 'प्रात्मा-जीव है' इस तरह सिद्ध होता है। ___"विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति ।" यहाँ 'विज्ञानघन एवं' अर्थात् विज्ञान का घन ही विशेष ज्ञान । यह ज्ञान गुण प्रात्मा के स्वभाव रूप है। वह आत्मा के अभेद भाव से होता है, इसीलिये प्रात्मा उनके उपयोगमय बनती है ।
आत्मा का विज्ञान के साथ गाढ़ सम्बन्ध हो जाता है। इसलिये इससे भी आत्मा विज्ञानघन कहलाती है। यहां पर विज्ञान पृथिव्यादि भूतों को लेकर उत्पन्न होता है । इसलिये कहा जाता है कि नया-नया ज्ञान स्वरूप आत्मा उन-उन ज्ञानों को लेकर उत्पन्न हुआ। कारण कि ज्ञान
और आत्मा का अभेद भाव है। इससे यह हुआ कि पृथिव्यादि भूतों से विज्ञानघन का ही जन्म होता है । अर्थात् पृथिव्यादि भूतों से आत्मा में ज्ञान स्वरूप प्रकट होता है, किन्तु अन्य सुखादि स्वरूप नहीं ।। __ इस तरह सर्वज्ञ भगवान श्री महावीर परमात्मा के वदन-मुंह से "विज्ञानघन एव०" का अर्थ जानकर वेद की
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