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इस श्रुति का मेरे द्वारा किया हुआ अर्थ असत्य, अयुक्त था ऐसा मानकर और उनका सच्चा अर्थ पाकर तथा प्रत्यक्षअनुमान आदि प्रमाणों से भी आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले प्रभु के ऐसे सुवचन सुनकर श्री इन्द्रभूति का 'जीव-प्रात्मा है कि नहीं?' इस विषय का संदेह-संशय नष्ट हुआ। विश्व में 'आत्मा है' इस कथन का निश्चय उनके अन्तःकरण में हुआ। तत्काल श्री इन्द्रभूति ने अपने सर्वज्ञपने के अभिमान को तिलांजलि दे दी और सच्चे सर्वज्ञ विभु श्री महावीर स्वामी भगवान का शिष्य बनने का निर्णय किया। उनके साथ में आये हुए पाँच सौ छात्र-विद्यार्थियों ने भी उन्हीं के साथ में दीक्षित होने की तत्परता की।
छिन्न संदेह-संशय वाले ऐसे श्री इन्द्रभूति अपने पाँच सौ छात्र-विद्यार्थियों के साथ प्रवजित-दीक्षित हुए । दीक्षित यानी दीक्षा पाने के साथ ही भगवान को तीन प्रदक्षिणापूर्वक 'भगवन् कि तत्त्वं?' इस प्रकार तीन बार पूछा । भगवन्त ने भी कहा-"उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" अर्थात् 'सर्व पदार्थ वर्तमान पर्याय रूप से उत्पन्न होते हैं, पूर्व की पर्याय रूप से नष्ट होते हैं तथा मूल द्रव्य रूप में ध्र व-नित्य रहते हैं।' इस तरह सर्वज्ञ प्रभु के मुंह से
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