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आत्मा नष्ट हो गया तो पुनःस्मरण भी कैसे हो सकता है ? पहले तत्त्वज्ञान, पीछे चिन्तन, फिर मनन-ध्यान इन क्रमिक क्रियाओं की प्रवृत्ति क्षणिक पात्मा में किस तरह घट सकती है ? अर्थात् एकक्षण स्थायी प्रात्मा में इनकी संगति कैसे हो सकती है ?
(५) चार्वाक-दर्शन-यह दर्शन नास्तिक दर्शन के रूप में प्रसिद्ध है। इस मत वाले आत्मा, पुण्य-पाप, परभव एवं मोक्ष इत्यादि नहीं मानते हैं। बस, खाना-पीना और मौज-मजा करना । क्यों इस लोक के प्रत्यक्ष सुख छोड़कर परोक्ष अदृष्ट सुख की आशा रखना ?
(६) जैन-दर्शन-अनेकान्तदर्शन और स्याद्वाद दर्शन रूप में सुप्रसिद्ध है। आत्मा के सम्बन्ध में इस दर्शन की मान्यता यह है कि आत्मा अनेक हैं, देह परिमाणवन्त हैं, द्रव्य से नित्य हैं और पर्याय से अनित्य हैं। आत्मा के लक्षण के सम्बन्ध में भी कहते हैं कि
यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता, सह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥ अर्थात्-यह आत्मा ही कर्मभेदों का कर्ता है, संसार
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