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ही नहीं, तो मोक्ष के लिये प्रयत्न फिर किस बात का करना ?
(३) वेदान्त दर्शन - इस दर्शन वाले अद्वैतवादी हैं। सर्व में एक ही आत्मा मानते हैं । अर्थात् आत्मा को शुद्ध ब्रह्म के स्वरूप में एक ही मानते हैं, किन्तु यह धारणा उपयुक्त नहीं है । कारण कि विश्व के जीवों में कोई सुखी तो कोई दुःखी, कोई धर्मी तो कोई अधर्मी, कोई ज्ञानी तो कोई अज्ञानी, कोई प्रास्तिक तो कोई नास्तिक, कोई हिंसक तो कोई हिंसक दयालु इत्यादि जो भिन्न-भिन्न विचित्रता दिखाई दे रही है; यदि वह आत्मा एक ही हो तो यह सब कैसे हो सकता है ? एवं इससे बन्ध-मोक्ष भी घटित नहीं हो सकता है ।
( ४ ) बौद्ध दर्शन - इस दर्शन वाले आत्मा को विज्ञान
स्वरूप मानते हुए भी क्षणिक कहते हैं । आत्मा क्षणिक होने से परिवर्तन तो होता है तो भी दूसरे क्षरण में ही आत्मा गुम हो जाता है । इस तरह द्वितीय क्षण में आत्मा को विनष्ट अर्थात् सर्वथा मूलतः नष्ट ही माना जाय तो पूर्वकृत कर्मों का भोक्ता - भोगने वाला कौन ? कर्म भोगता है, वह तो स्वयं पूर्व में कर्म किस आत्मा ने किये ? पूर्व
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तथा जो आत्मा अभी था ही नहीं फिर ये