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ज्ञानादि नहीं जानना। ऐसी मान्यता में वहाँ पर प्रश्न यह होगा कि ज्ञानरहित काल में चेतन का चैतन्य स्वरूप क्या होगा? उनके मत में तो मोक्ष में जड़ पत्थर जैसी मुक्ति मिलेगी। सर्वदा ज्ञान का अभाव ही रहेगा। फिर इस दर्शन वाले प्रात्मा को एकान्त नित्य और विश्वव्यापी कहते हैं। इस तरह यदि आत्मा को एकान्त नित्य ही माना जाय तो आत्मा में परिवर्तन अर्थात् फेरफार किसी भी प्रकार का नहीं हो सकता, तो पीछे समय-समय पर भिन्न-भिन्न अवस्थायें कैसे हो सकती हैं ? मोक्ष का मार्ग भी किसलिये ? कारण कि उसके मत में तो आत्मा में कोई भी परिवर्तन होगा ही नहीं; तो पीछे आत्मा का विश्वव्यापित्व और भवान्तर या देशान्तर में भी गमनागमन किस तरह माना जाय? तथा सुख-दुःख का ज्ञान देह-शरीर में ही क्यों ?
(२) सांख्य-योग-दर्शन-इस दर्शन वाले अात्मा अनेक मानते हैं, तो भी उसे कूटस्थ-स्थिर-नित्य कहते हैं । अर्थात् तीनों ही काल में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिये वह आत्मा अयोग्य है। ज्ञानादि गुण बिना निर्गुणगुणविहीन है; इसी तरह मानते हैं। इस मान्यता के बारे में प्रश्न यह होता है कि इस जीव-आत्मा का मोक्ष
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