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होता है; उसी माफिक शरीर भी भोग्य है तो उसका भोक्ता शरीरी होना चाहिये। वह है प्रात्मा। अर्थात् भोजन, वस्त्र आदि वस्तुओं की भाँति शरीर भी भोग्य वस्तु है। इसलिये उसका भोक्ता अवश्य होना हो चाहिये। जैसे महल, मकान आदि मालिक बिना नहीं होते। देह-शरीर भी भोग्य है, इसलिये उसका भोक्ता अवश्य होगा। शरीर, सम्पत्ति तथा सुख-प्रभुता इत्यादिक का भोक्ता तथा दुःखादिक का भी भोक्ता यह आत्मा ही है। यह आत्मा शरीर में रहते हुए भी शरीर से भिन्न है।
(२) किसी भी सजीव व्यक्ति के शरीर में भिन्न आत्मा है, यह कथन सिद्ध करने के लिये ऐसा अनुमान होता है कि इसके देह को प्रवृत्त और निवृत्त बनाने वाली आत्मा इसके अन्दर है। मृत्यु हो जाने पर अर्थात् शरीर में से प्रात्मा आत्मप्रदेशों के साथ बाहर निकल जाने पर शरीर में स्वतः अंश मात्र भी इष्ट-प्रवृत्ति या अनिष्टनिवृत्ति नहीं होती है। देह में आत्मा विद्यमान होने तक ही देह प्रवृत्त-निवृत्त होता रहता है। जैसे-बैलगाड़ी, घोडागाड़ी, अश्वसंचालित रथ इत्यादि ।
(३) शरीर भोग्य है आत्मा उसका भोग करने वाली