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त्रैकालिक प्रत्यक्ष में 'मैं' के प्रत्यक्ष-भास से भी प्रात्मा प्रत्यक्ष सिद्ध होती है। संदेह-संशयादिक स्फुरण के स्वप्रत्यक्ष से भी आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध होती है। 'मैं' के संदेह-संशय के अभाव से भी आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध होती है। स्वप्न में 'मैं हूँ' ऐसे अबाधित प्रत्यक्ष अनुभव से भी आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध होती है। गुणी में रहे हुए गुण के प्रत्यक्ष से भी आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध होती है, इत्यादि। ऐसे अनेक प्रत्यक्ष प्रमाणों से आत्मा की सिद्धि अवश्यमेव होती है ।
अनुमान प्रमाण से आत्मा की सिद्धि (१) जैसे 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः '-जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ वह्नि-अग्नि है। उसी प्रकार से इधर भी 'विद्यमानभोक्तृकम् इदं शरीरं, भोग्यत्वात्, अोदनादिवत्' इति । जो भोग्य यानी भोगने के योग्य है, उसका भोक्ता-भोगने वाला अवश्य होता है। जैसे भोजन तथा वस्त्रादिक भोग्य हैं, तो उसका भोक्ता मनुष्य आदि