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देह में से चैतन्य उत्पन्न होता हो तो मृत्यु-मरण के पश्चाद् भी देह-शरीर तो है, तो उस शव को चैतन्य क्यों नहीं होता? शव को चैतन्य कभी भी नहीं होता है । इसलिये कहा जाता है कि चैतन्य तो प्रात्मा से ही होता है। फिर जिसका विकार होने पर जिसका विकार होता है, उसका वह कार्य कहा जाता है। अर्थात् उसमें से वह उत्पन्न हुआ, ऐसा कहा जाता है। जैसे-श्वेत तन्तुओं से बने हुए वस्त्र को लाल रंग से रंगने पर वे तन्तु भी लाल रंग वाले हो जाते हैं; जिसे माना जाता है कि तन्तुओं से वस्त्र बना। परन्तु शरीर और चैतन्य में ऐसा अनुभवाता नहीं। कारण कि पागल हुए मानव का चैतन्य विकार वाला होता है, तो भी उसका शरीर तो पूर्व जैसा ही होता है। उसके शरीर में कोई विकार दिखता नहीं, तो पीछे शरीर में से चैतन्य उत्पन्न होता है, इस तरह कैसे माने ? फिर जिसकी वृद्धि होती है उससे वह उत्पन्न हुआ, इस तरह कहते हैं। जैसे-मिट्टी अधिक होवे तो घड़ा बड़ा बनता है, इससे माना जाता है कि मिट्टो में से घड़ा होता है; किन्तु देह और चैतन्य में ऐसा अनुभवाता नहीं। कारण कि एक हजार योजन के देह वाले मत्स्यों को ज्ञान अति-अल्प होता है तथा उनसे छोटे देह वाले मनुष्यों का ज्ञान उनसे अधिक होता है।