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यह मान्यता ठीक नहीं है। कारण कि उस समय पुष्ट बना हुआ शरीर चैतन्य का सहायक बनता है, किन्तु शरीर मात्र सहायक होने से उस देह में से चैतन्य उत्पन्न होता है, ऐसा नहीं मान सकते। जैसे अग्नि द्वारा स्वर्ण में स्वर्ण पिघलता है, यह द्रव्यता होने में अग्नि सहायकारी है; किन्तु इससे यह नहीं कहा जाता है कि अग्नि में से द्रव्यता उत्पन्न हुई। सही रूप में इस तरह कहा जाता है कि स्वर्ण में से द्रव्यता उत्पन्न हुई। द्रव्यता धर्म स्वर्ण का है, इस तरह चैतन्य सतेज होने में पुष्ट शरीर भले ही सहकारी हुआ हो, इसे इस तरह नहीं कहा जाता है कि देह में से चैतन्य उत्पन्न हुआ। किन्तु चैतन्य आत्मा से ही होता है। इसलिये कहा जाता है कि-'चैतन्य प्रात्मा का ही धर्म है।' फिर कितनेक मनुष्य हृष्ट-पुष्ट देहवाले होने पर भी उनका ज्ञान कम-अल्प होता है और कितनेक मनुष्य कृश-दुर्बल (पतले) होने पर भी उनका ज्ञान विशेषरूप में होता है, ऐसा अनुभव हो जाता है। इससे पुष्ट देहवाले को अधिक-विशेष ज्ञान होता है, ऐसा नियम कहाँ रहा? जब ऐसा नियम नहीं रहता है तब देह में से चैतन्य उत्पन्न होता है, यह कथन किस तरह से माना जाय? अर्थात् देह में से चैतन्य कभी भी उत्पन्न नहीं हो सकता। चैतन्य तो अात्मा से ही होता है ।
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