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बोध इत्यादि भी ज्ञान के प्रकार प्रत्यक्ष सिद्ध हैं । तथा उसका आधारभूत गुणी आत्मा भी प्रत्यक्ष ही मानना चाहिये । ज्ञान आत्मा का सहभावी गुण है । इसलिये जहाँ ज्ञान हो वहाँ आत्मा अवश्य होता ही है ।
( ३ ) सुख, दुःख, हर्ष, शोक, स्मरण इत्यादि श्रात्मा की सत्ता को सिद्ध करते हैं । इसलिये मृतदेह को सुख, दुःख, हर्ष, शोक, स्मरण इत्यादि नहीं होता है । कारण कि देह की हलन चलनादि क्रियाओं का प्रेरक भी प्रात्मा ही है । आत्मा बिना मृतक कुछ भी क्रिया नहीं कर
सकता ।
(४) मैं हूँ, मैं था, मैं होऊंगा, अथवा मैं करता हूँ, मैंने किया, मैं करूंगा इत्यादिक त्रैकालिक अनुभव में 'मैं' का अनुभव जो होता है, वह आत्मा का ही प्रत्यक्ष अनुभव है । कारण कि तीनों ही कालों में आत्मा तदवस्थ ही है । यह प्रतीति भी आत्मा की सत्यता सिद्ध करती है ।
( ५ ) चैतन्य आत्मा का ही धर्म है, देह का नहीं ।
घी, दूध इत्यादि उत्तम पदार्थों को वापरने से पुष्ट बने हुए शरीर का चैतन्य सतेज अनुभवाता होने से, 'भूतों के समुदाय रूप शरीर में से वह चैतन्य उत्पन्न होता है ।'
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