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होती है। क्योंकि 'यह प्रात्मा ज्ञानमय है, ब्रह्मचर्य तथा तप से ज्योतिर्मय है, यति धीर संयतात्मा इसे साक्षात् कर सकते हैं। तो यह तेरे लिये भ्रम का कारण हो सकता है। किन्तु वेद का पदार्थ इससे भिन्न नहीं है। अतः परस्पर विरुद्धता तेरे भ्रम का कारण है।
* प्रत्यक्ष प्रमाण से आत्मा की सिद्धि #
जो वस्तु संसार में दृश्यमान नहीं है उसकी संशयशोलता ही नहीं होती। आत्मा के सम्बन्ध में तुझे स्वयं को संदेह-संशय हुअा है, अत: प्रात्मा प्रत्यक्ष है। संशयात्मकता का प्रभाव नहीं होता, क्योंकि जब सत्ता है तब ही संदेह-संशय होता है। कहीं-न-कहीं उस वस्तु की सत्ता होती है।
(१) जो सर्वज्ञ हैं वे प्रात्मा को प्रत्यक्ष देखते हैं। जैसे किसी व्यक्ति क आंतरिक संदेह-संशय इन्हें प्रत्यक्ष होते हैं, तथा समय पर व्यक्त किये जाते हैं और वे मान्य होते हैं। वैसे इन्हें प्रत्यक्ष होने वाली प्रात्मा भी अवश्य मान्य होनी चाहिये।
(२) जिस प्रकार संदेह-संशय-शंका-विकल्प ज्ञान का एक प्रकार है, उसी प्रकार स्मृति, इच्छा, तर्क, जिज्ञासा
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