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आधारभूत आत्मा नहीं। क्योंकि पाँच भूतों में से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे ज्ञान का प्राधार पाँच भूत मानना चाहिये। जैसे मदिरा के अंग में से मदशक्ति उत्पन्न होती है, वैसे देह रूप में परिणत पाँच भूतों में से विज्ञानशक्ति उत्पन्न होती है। पीछे जब उन देह रूप पाँच भूतों का विनाश होता है तब विज्ञान समुदाय का भी उन्हीं में विलय होता है। जैसे जल के बुलबुले जल में नष्ट हो जाते हैं वैसे इधर भी पंच भूतों में से उत्पन्न हुई विज्ञानशक्ति भी इन्हीं में लय हो जाती है। इससे यह संदेह होता है कि फिर परलोक की प्राप्ति नहीं होती, उसका पुनर्जन्म भी नहीं होता।
परलोक नहीं अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होने से आत्मा जैसा कोई पदार्थ होता ही नहीं है। हे इन्द्रभूति ! फिर तू मानता है कि उक्त वेदवाक्य का अर्थ युक्ति से भी ठीक लगता है। कारण कि प्रत्यक्षादि प्रमाण से भी आत्मा दिखाई नहीं देती तथा स्पर्शादि अनुभव से भी जानने में नहीं आती।
जीव-प्रात्मा नहीं है। इसकी सिद्धि जग में 'जीवप्रात्मा नहीं हैं। इनके मिलते हुए अनेक निम्नलिखित
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