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संदेह है कि "विश्व में जीव-प्रात्मा है कि नहीं ?" तथा तुझे यह संदेह वेदपद के अर्थ की बराबर जानकारी नहीं होने के कारण हुआ है। तूने वेद के पदों का अर्थ अन्य प्रकार से जाना है। अब सुनो।' इस प्रकार कह कर उसी समय मन्थन कराते समुद्र के घुघवाट सदृश, पूर्ण वेग में बहती गंगा के पूर सदृश तथा ब्रह्मा की आदि ध्वनि सदृश अत्यन्त धीर और गम्भीर ध्वनि-स्वर से सर्वज्ञ विभु श्री महावीर देव ने वेद की श्रुतियों का अर्थात् वेदपदों का उच्चारण किया। "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञास्ति" इति । हे इन्द्रभूति ! तुमने वेदवाक्यों का अर्थ इस प्रकार समझा है-'विज्ञानघन'-गमनागमनादिचेष्टावान् आत्मा, 'एतेभ्यो भूतेभ्य एव' =पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु-अाकाश इन पंचभूत में से ही, 'समुत्थाय' =उत्पन्न होकर, 'तान्येवानुविनश्यति'-फिर उन्हीं में नष्ट हो जाता है। इन भूतों के बिखरने के साथ ही वह आत्मा-चेतना भी नष्ट हो जाती है। इससे 'न प्रेत्यसंज्ञास्ति' परलोक की संज्ञा नहीं होती-पुनर्जन्म नहीं होता। अन्यत्र जाना होता नहीं। अर्थात् देहरूप में परिणत हुए इन पृथिव्यादि पाँच भूतों में से 'यह देव है, यह मनुष्य है, यह तिर्यंच है,' इत्यादि विविध प्रकार के ज्ञान का समुदाय ही उत्पन्न होता है; किन्तु ज्ञान का
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