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के उच्चारणपूर्वक अमृत जैसी मधुर वाणी में उन्हें सम्बोधित किया
'हे गौतमेन्द्रभूते ! त्वं, सुखेनागतवानसि' हे गौतमगोत्रीय इन्द्रभूते ! तुम सुखपूर्वक तो आये हो ?
ऐसा प्रश्न सुनकर प्रथम तो श्री इन्द्रभूति को आश्चर्य हुआ; वह विचारने लगा कि 'अहो ! मेरा नाम तक ये जानते हैं। क्यों न जाने ? विश्व में क्या तीनों लोकों में आबालवृद्ध मेरे सुप्रसिद्ध नाम को कौन नहीं जानता ? मेरे नाम को सब लोग जानते हैं। इसलिये ये मुझे नाम से पुकारें, इसमें कोई आश्चर्य जैसी बात नहीं है। आकाश में रहा हुआ सूर्य क्या प्रा-बालगोपाल जन से छिपा है ? नहीं। ये मेरे नाम को ओर मेरे गोत्र को जान लें, इसमें कोई विशेषता नहीं। लेकिन मेरे मन में रहे हुए गुप्त संदेह-संशय को प्रकाशित करें तो मैं इन्हें सच्चा सर्वज्ञ मानू; अन्यथा नहीं।'
. श्रमण भगवान श्री वर्द्धमान स्वामी-महावीर परमात्मा तो सर्वज्ञ-अनंतज्ञानी हैं। उनसे यह संदेह कहाँ छिपा है ? तत्काल सर्वज्ञ विभु कहते हैं कि 'हे इन्द्रभूति गौतम ! तेरे हृदय में जोव-यात्मा के अस्तित्व के विषय में