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________________ विजयपताका फहराई और महान् यश प्राप्त किया। अब उसका संरक्षण किस तरह से करना? यह एक वादी न जीता गया होता तो मेरा क्या बिगड़ने वाला था ? यह तो मेरी ही मूर्खता है कि मैंने एक कील के लिए अपनी कीत्ति रूपी पूर्ण महल-प्रासाद को तोड़ने का यत्न किया । अहो ! मैंने बिना सोचे साहस किया। अरे ! मेरी दुर्बुद्धि कैसी कि ऐसे सर्वज्ञ जगदीश को जीतने के लिए पाया । मैं ऐसे तेजस्वी महाज्ञानी के आगे किस रीति से बोल सकूगा। अरे ! बोलना तो दूर रहा, किन्तु इनके पास में भी कैसे जा सकंगा? प्रार्थना करता हूँ कि 'संकटे पतितोऽस्मीति, शिवो रक्षतु मे यशः ।' अर्थात् मैं पूर्ण रूप से संकट में पड़ गया हूँ, हे शिव ! अब तो आप ही मेरे यश का रक्षण करें। अर्थात् मेरी कीत्ति की रक्षा करें। फिर भी सोचते हैं कि कदाचित् भाग्योदय से मेरे सम्पूर्ण शास्त्र-ज्ञान द्वारा वाद में यदि मेरी जीत हो जाय, अर्थात् इन एक को मैं जीत लूँ तब तो तीन लोक में पण्डितशिरोमरिण कहलाऊँ और मेरी कीत्ति तीनों लोकों में प्रसारित हो जाय। फिर तो मेरा महत्त्व और मेरा स्थान वर्णनातीत हो जाय।” इत्यादि चिन्तवते हुए श्री इन्द्रभूति अपनी विचारधारा में मग्न हैं। इतने में सर्वज्ञ विभु श्री वर्द्धमान स्वामी ने उनके नाम और गोत्र ( ३३ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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