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हैं; किन्तु इन पर तो ऐसी एक भी वस्तु देखने में आती नहीं है। इसलिये ये महेश-शंकर भी नहीं। .
... (७) क्या ये कामदेव हैं ? नहीं। जराभीरु काम
देव तो शरीर रहित है और ये तो शरीरधारी हैं। इसलिये ये कामदेव भी नहीं। अब ये भी नहीं-ये भी नहीं-ये भी नहीं तो फिर ये कौन हैं ?
.. ऐसे गहराई से विचारते हुए श्री इन्द्रभूति को याद आया कि मैंने भी शास्त्रों में एक बात पढ़ी है कि "सर्व दोषों से रहित और सर्व गुणों से सहित एक अन्तिम तीर्थकर होने वाला है। जैनों के चौबीस तीथंकरों में यही चौबीसवें तीर्थकर होने चाहिये।" अब तो श्री इन्द्रभूति को अपने अन्तःकरण में पक्का निर्णय और विश्वास हो गया कि चौबीसवें तीर्थंकर यही हैं, दूसरे नहीं।
सर्वज्ञ ऐसे प्रभु महावीर को देखने से श्री इन्द्रभूति को आह्लाद तो अवश्य हुआ, लेकिन अभी तक मिथ्यात्व में फंसे हुए होने से प्रभु के सामने होते हुए भी उन्होंने इनकी शरण स्वीकार नहीं की। वे अति चिन्ता में पड़ गये । पश्चाताप कर रहे हैं कि "अरे ! मैं यहाँ कहाँ आ फँसा ? अरे रे ! अद्यावधि विश्व के वादियों को जीत कर सर्वत्र
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