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पर बैठे हुए, सुरेन्द्रों से पूजित तथा अमृतमय वाणी द्वारा धर्मदेशना देते हुए ऐसे विश्वपूज्य सर्वज्ञ श्री महावीर स्वामी भगवान के तेजस्वी और भव्य मुखारविन्द को देख कर श्री इन्द्रभूति दंग रह गये और सोपान पर ही खड़े रहकर विचारने लगे कि ये कौन होंगे? (पहचानने का प्रयत्न करते हैं।) 'अहो ! कि ब्रह्मा ?, किं विष्णुः, सदाशिवः शङ्करः किं वा ?' अहो ! क्या ये ब्रह्मा हैं ? क्या ये विष्ण हैं ? या क्या ये सदाशिव शंकर हैं । इसका समर्थन निम्नलिखित श्लोक में इस प्रकार हैचन्द्रः किं ? स न यत् कलङ्ककलितः सूर्योऽपि न तीव्ररुक, मेरुः किं न स यन् नितान्तकठिनो विष्णुः न यत् सोऽसितः। ब्रह्मा किं ? न जरातुरः स च जराभीरुन यत् सोऽतनुनिं दोषविजिताऽखिलगुरणाऽऽकीर्णोऽन्तिमस्तीर्थकृत् ॥१॥
उक्त श्लोक में जो विशिष्ट नाम कहे हैं, उन पर श्री इन्द्रभूति विचार कर रहे हैं- . .
(१) क्या ये चन्द्र हैं ? नहीं। चन्द्र तो कलंक युक्त अर्थात् कलंकित है और ये तो निष्कलंक-कलंकरहित सौम्य कान्तिमय हैं। इसलिये ये चन्द्र नहीं हैं।
(२) क्या ये सूर्य हैं ? नहीं। सूर्य तो सामने