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कौन सा शास्त्र है जिसमें मैंने परिश्रम न किया हो । हे वादी ! तुझे मैं सर्व शास्त्र में परास्त कर सकता हूँ।"
__ "फिर श्री इन्द्रभूति अपने हृदय में निर्धार-निश्चय करता है कि जैसे यम को कभी मालवा दूर नहीं है, समर्थ विद्वान् के लिये किसी प्रकार की भी रस की पुष्टि न कर सकना, ऐसा नहीं है, चक्रवर्ती के लिये छह खण्ड न जीत सके, ऐसा नहीं है, वज्र के लिये कुछ भी अभेद्य नहीं है, कल्पवृक्ष के लिये लौकिक कुछ भी अदेय नहीं है, महान् प्रात्माओं के लिये कुछ भी असाध्य नहीं है, क्षुधित-भूखे के लिये कोई अखाद्य नहीं है तथा दुर्जनों के लिये कुछ भी अवाच्य नहीं है, वैसे मेरे लिये भी विश्व में कोई वादी अजेय नहीं है ।”
इस तरह अभिमान-अहंकार की तरंगों में निमग्न बने हुए श्री इन्द्रभूति अपने पाँच सौ शिष्यों के परिवार सहित चलते-चलते सर्वज्ञ विभु श्री महावीर परमात्मा के दिव्य समवसरण के समीप पहुँच गये। .. वहाँ पर दिव्य समवसरण को देखते ही अति विस्मयवन्त बने श्री इन्द्रभूति समवसरण की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। ३४ अतिशयों से सुशोभित और स्वर्ण के सिंहासन
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