SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२७) हे वादिशलभदीपक !' वादी रूपी शलभपतंगे के लिये दीपक के समान हो। (२८) हे वादिचक्रचूडामणे !' वादिचक्र के चूड़ा. मणि हो। (२६) 'हे पण्डितशिरोमणे !' पण्डितों में शिरोमणि हो। (३०) 'हे विजेताऽनेकवाद !' अनेक वादों के विजेता हो। (३१) 'हे सरस्वतीलब्धप्रसाद !' सरस्वती के लब्धप्रसाद हो। ___ इत्यादि विविध विरुदों के समुदाय से दिशात्रों के चक्र को जिन्होंने गुंजा दिया है-शब्दमय बना दिया है। ऐसे अपने पाँच सौ छात्र-विद्यार्थियों के परिवार से घिरे हुए श्रीइन्द्रभूति सर्वज्ञ विभु श्री महावीर स्वामी को जीतने के लिये उनके पास जाते-जाते अभिमान के शिखर पर चढ़े-चढ़े चिन्तवने-विचारने लगे-- - "अरे ! इस दुष्ट ने सर्वज्ञपने का आडम्बर करके मुझे छंछेड़ा है, अति कोपायमान किया है। जैसे मण्डूक ( २६ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy