SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसलिये इनके गुणों को गिन नहीं सकते या कह नहीं सकते।" • लोगों के द्वारा प्रभु की इस प्रकार की गुण-महत्ता सुनकर श्रीइन्द्रभूति अत्यन्त विचार में पड़ गये। वे सोचने लगे-'खरेखर यह कोई महाधूर्त है, ‘माया का कुलमन्दिर है जिसके योग से इसने समस्त लोगों को विभ्रम में डाल दिया है। किन्तु जिस तरह हाथी कमल को उखाड़ दे, कुल्हाड़ा घास को काट दे और सिंह मृग को मार दे तो उसमें उसने क्या बहादुरी की ? इसी तरह यह महाकपटी इन्द्रजालिया ऐसे भोले और मूर्ख लोगों के पास अपने को सर्वज्ञ तरीके अोलखा दे तो इसमें उसकी क्या बड़ाई ? उसका यह मिथ्याभिमान तब तक ही है जब तक कि वह मेरे साथ शास्त्रार्थ करने के लिये वाद-विवाद में उतरा नहीं है। अब तो मैं उस सर्वज्ञ को क्षण मात्र भी सहन नहीं कर सकता। अन्धकार को दूर करने में सूर्य अंश मात्र भी विलम्ब नहीं करता। जैसे अग्नि, उसे स्पर्श करने वाले को तत्काल जलाती ही है, सिंह कभी भी ग्रीवा के बाल खींचने-लुंचने नहीं देता है तथा क्षत्रिय शत्रु से होते हुए पराभव को कदापि सहन नहीं कर सकता है, वैसे ही मैं सर्वज्ञ इस तरह सर्वज्ञपने का मिथ्या आरोप ( १८ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy