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________________ भो ! दृष्टः स इति । इधर सर्वज्ञ विभु श्री महावीर परमात्मा को वन्दन कर लौटते हुए लोगों को सामर्ष एवं ईर्ष्याजन्य उपहासपूर्वक श्री इन्द्रभूति ने पूछा- 'भो ! सर्वज्ञः ? कीदृग् रूपः ? किं स्वरूपः ? "हे हे जनो ! क्यों ? देख आए हो उन सर्वज्ञ को । कहो तो खरा, वह सर्वज्ञ कैसा है ? उसका रूप कैसा है ? तथा उसका स्वरूप भी कैसा है ? " सर्वज्ञ प्रभु का साक्षात् अद्वितीय सुन्दर रूप और अनन्त गुरण इत्यादि देखकर आये हुए लोगों ने कहा यदि त्रिलोकीगरणनापरा स्यात्, तस्याः समाप्तिर्यदि नाऽऽयुषः स्यात् । पारेपराद्ध गरिणतं यदि स्यात्, गरणेयनिःशेषगुणोऽपि स स्यात् ।। १ श्रीइन्द्रभूति ! उन दिव्य "हे पण्डितप्रवर ! महापुरुष के गुणों का हम क्या वर्णन करें ? उनके गुणों का वर्णन करने में यदि तीन लोक के जीव भी एकत्र हो जायें और उनके प्रायुष्य की समाप्ति न हो तथा परार्ध से भी आगे का गणित हो, तो कदाचित् उन प्रभु के सभी गुणों की गणना हो सकती है; किन्तु यह अशक्य है । ( १७ )
SR No.002334
Book TitleGandharwad Kavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1987
Total Pages442
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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