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धूर्त के द्वारा कोई मूर्ख ठगा जाय, यह बात तो बनने योग्य है, किन्तु यह तो कोई महाधूर्त लगता है कि जिसने देवों को भी ठग लिया है। इस कारण से देव इस पवित्र यज्ञ-मण्डप को और सर्वज्ञ ऐसे मुझको भी छोड़कर उसके पास जा रहे हैं। अहो ! ये देव भी कैसे भ्रमित हो गये हैं। जैसे 'तीर्थाम्भ इव वायसाः' अर्थात् जिस तरह कौए तीर्थ के जल को छोड़कर घड़े के जल में अपनी चोंच मारते हैं, 'कमलाकरवद्भकाः' भेक-देडकाएँ कमलाकर सरोवर को छोड़कर खाबोचिया में कुदकी मारते हैं, 'मक्षिकाश्चन्दनम्' मक्षिकाएँ सुगन्धित चन्दन को छोड़कर विष्टा पर बैठती हैं, 'करभा इव सवृक्षान्' करभ-ऊँट उत्तम ऐसे द्राक्षादिक वृक्षों को छोड़कर नीम को खाने के लिये जाता है, 'क्षीरान्नं शूकरा इव' शूकर-भूडो क्षीरान्न को छोड़कर विष्टा में आनन्द मानने के लिये चला जाता है तथा 'अर्कस्यालोकवद् धूकाः' सूर्य के झलहलते प्रकाश को छोड़ देने वाले ऐसे घूक-घूवड़ों हैं; उसी तरह भ्रान्ति पाये हुए ये देव पवित्र ऐसे इस यज्ञ-मण्डप को देख कर भी वहाँ जा रहे हैं। 'यादृशोऽयं सर्वज्ञस्तादृशा एवैते देवाः, अनुरूप एव संयोगः ।' अर्थात् इससे यह लगता है कि जैसे यह सर्वज्ञ है वैसे ही ये देव भी हैं। खरेखर समानसमान ही का संयोग अनुरूप होता है। विश्व में भी देखते
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