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को देखकर, यज्ञ-मण्डप में यज्ञ-विधि कराते हुए श्री इन्द्रभूति आदि पण्डित सानंद विचार करते हैं कि 'अहो ! १ . यज्ञस्य महिमा ! यदेते सुराः साक्षात् समागताः ।'
इस तरह यज्ञ-मण्डप में देवों के आगमन की राह देखते हुए ब्राह्मण आकाश की तरफ दृष्टि रख कर देख रहे थे। इतने में तो देवों को यज्ञ-मण्डप छोड़कर आगे जहाँ सर्वज्ञ विभु दिव्य समवसरण में विराजमान थे, वहाँ जाते हुए देखकर सभी ब्राह्मण खिन्न हो गये। बाद में उन्होंने लोकमुख से भी सुना कि 'ये देव समीप में रहे हुए किसी सर्वज्ञ विभु को वन्दन करने के लिये जा रहे हैं।' 'सर्वज्ञ' ऐसा शब्द सुनते ही सब में मुख्य श्रीइन्द्रभूति द्विज जो सर्वज्ञत्व के मिथ्याभिमान से कलुषित था, वह ईर्ष्या और कोप से चिन्तवने लगा कि 'अरे ! मैं सर्वज्ञ इधर विद्यमान हूँ, तो भी अन्य अपने को सर्वज्ञ तरीके प्रख्यापित करने की धृष्टता-चेष्टा करता है ?' कर्ण को असह्य ऐसा कटु वचन क्यों सुना जाय ?
'मेरे रहते हुए यह अन्य कौन सर्वज्ञ है ?' किसी
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१. अहो ! इस यज्ञ की महिमा अति-अद्भुत है कि जिसमें साक्षात् देव
भी दर्शन के लिये पा रहे हैं।
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