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ने उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में चन्द्रमा का योग प्राप्त होते हो स्वात्म के समूल चार घाती कर्म का सर्वथा क्षय करके अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न और परिपूर्ण ऐसे लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान तथा केवलदर्शन को प्राप्त किया। अर्थात् प्रभु को पंचम केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ; जिससे सर्वज्ञ बने हुए श्री महावीर परमात्मा सर्व जीवों के तथा विश्व के सारे पुद्गलों के अनन्तानन्त काल के सभी पर्याय दृष्टि सन्मुख हथेली में रहे हुए पावले की माफिक स्पष्ट रूप में प्रत्यक्ष देखते हैं और जानते भी हैं।
उस वक्त सम्पूर्ण लोक आलोकित हो उठा। देवों द्वारा दिव्य समवसरण की रचना की गई। वहाँ पर प्रभु ने देवों के समक्ष क्षणवार धर्मदेशना दी, लेकिन किसी के भी विरति के परिणाम नहीं होने से ऊसर भूमि में पड़ी हुई वृष्टि की माफिक यह धर्मदेशना निष्फल' हुई। बाद में प्रभु वहाँ से विहार कर अपापापुरी के महसेन नाम के उद्यान में पधारे। देवों ने इधर भी वैशाख सुद ११ के दिन रजत, स्वर्ण और रत्नमय तोन गढ़ युक्त दिव्य
१. इस प्रसंग को शास्त्र में जैनाचार्यों ने अाश्चर्य रूप में अभिव्यक्त किया
है। (आवश्यक नियुक्ति)